
अपने गठन के आठ साल के इतिहास में सात मुख्यमंत्री देख चुके छोटे-से राज्य झारखंड की राजनीति ने बुधवार को जहां एक और करवट ली, वहीं राज्य के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की किस्मत एक बार फिर दगा दे गई। वे तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन इस दफा भी वे छह महीने का कार्यकाल पूरा नहीं कर सके।
‘दिशुम गुरु’ के नाम से मशहूर शिबू सोरेन झारखंड राज्य आंदोलन के अगुवा नेताओं में रहे हैं। राज्य का मुख्यमंत्री बनने की उनकी हसरत जरूर पूरी हो गई, लेकिन उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि मुख्यमंत्री बने रहना उनके लिए इतनी टेढ़ी खीर साबित होगी कि उन्हें तीसरी बार महज छह महीने के भीतर ही इस पद से हाथ धोना पड़ेगा।
सोरेन पहली बार आठ दिनों के लिए झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाने की वजह से उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।
दूसरी बार वे फिर 27 अगस्त को राज्य के मुख्यमंत्री बने लेकिन इस बार जो हुआ वह देश के इतिहास में एक ही बार हुआ था। मुख्यमंत्री रहते वे चुनाव हार गए। इस बार तमाड़ विधानसभा से राजा पीटर के हाथों हार, उनके इस्तीफे का कारण बना।
इससे पहले 1971 में देश में पहली बार ऐसा हुआ कि मुख्यमंत्री रहते त्रिभुवन नारायण सिंह को चुनाव हारने के कारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।
भाजपा ने सोरेन से समर्थन वापसी का निर्णय टाला
अब तीसरी बार हुआ है जब मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके हाथ से जा रही है। लेकिन इस बार किस्मत ने दगा दिया है उनके साथ या फिर उन्होंने अपने पैर पर सोची-समझी रणनीति के तहत कुल्हाड़ी मारी है, यह तो भविष्य की गर्त में छिपा है।
यही नहीं सोरेन जब भी केंद्र सरकार में मंत्री बने हैं, तब भी किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया है और हर बार किसी न किसी वजह से उन्हें कुर्सी खाली करनी पड़ी है।
सोरेन को मुख्यमंत्री बने रहने की संवैधानिक अनिवार्यता के तहत छह महीने के भीतर विधानसभा का सदस्य बनना अनिवार्य था। मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही वे एक सुरक्षित सीट की तलाश में थे, लेकिन उनकी यह तलाश पूरी नहीं हुई थी। उनके बेटे, बहू और उनके सहयोगियों तक ने उनके लिए अपनी सीट खाली करने से इंकार कर दिया था। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज है कि तमाड़ में हुई पिछली फजीहत से बचने के लिए उन्होंने इस बार यह दांव खेला है।
सूत्रों की मानें तो सोरेन ने इससे बचने के लिए व केंद्र सरकार में मंत्री पद पाने के लिए यह चाल चली है। इसलिए वे बाकायदा एक रणनीति के तहत पिछले कुछ दिनों से संसद आ रहे थे और कटौती प्रस्ताव पर मतदान के दिन उन्होंने जान-बूझकर केंद्र सरकार के समर्थन में मतदान किया।
भाजपा का शिबू सोरेन सरकार से समर्थन वापस
नए राजनीतिक समीकरण में अब जो संभावनाएं बन रही हैं उस पर एक नजर दौड़ाई जाए तो उसमें सबसे पहले यही दिखता है कि कांग्रेस झामुमो और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाली झारखंड विकास पार्टी (झाविपा) के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश करे। ऐसे में मरांडी के मुख्यमंत्री बनने की संभावना प्रबल हो जाएगी।
दूसरा समीकरण यह है कि कांग्रेस झामुमो और शेष बचे निर्दलियों को साधकर सरकार बनाए जिसकी संभावना कम ही दिख रही है। क्योंकि इससे सरकार के स्थायित्व पर सवालिया निशान लगे रहेंगे। कांग्रेस के लिए इससे बेहतर स्थिति विधानसभा को निलंबित रख राज्य में पिछले दरवाजे से शासन करना होगा। कांग्रेस का एक खेमा इसके पक्ष में ही है।
बयासी सदस्यीय झारखंड में विधानसभा में एक सीट नामांकित सदस्य के लिए है, जबकि 81 चुनावी सीटें हैं। राज्य विधानसभा में वर्तमान में भाजपा और झामुमो के 18-18, कांग्रेस के 14, झाविपा के 11, ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के पांच, जनता दल (युनाइटेड) के दो और शेष निर्दलीय विधायक हैं।
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