बेशक देश में सोना 17 से 18 हजार रुपये प्रति दस ग्राम बिक रहा है लेकिन एक स्थान ऐसा भी है जहां आदिवासी सोने के कण एकत्र करते हैं जिसे वहां के स्थानीय व्यापारी औने पौने दामों में खरीद लेते हैं. झारखंड के छोटानागपुर क्षेत्र में आदिवासी बहुल एक स्थान है रत्नगर्भा. इस क्षेत्र में स्वर्ण रेखा नदी बहती है जिसका विशेष महत्व है. इस क्षेत्र के आदिवासी इसे नंदा की संज्ञा भी देते हैं. यह नदी रांची स्थित अपने उदगम स्थल से निकलने के बाद किसी नदी में नहीं मिलकर सीधे बंगाल की खाड़ी में गिरती है. सोने के कणों के लिये विख्यात होने के कारण इस नदी का नाम स्वर्ण रेखा नदी पड़ा है.
हैरतअंगेज बात यह है कि स्वर्ण रेखा नदी में जो सोने के कण मिल रहे हैं उसके बारे में राज्य और केन्द्र सरकार दोनों ने ही निगाहें फ़ेरी हुई हैं. कोई भी सरकारी मशीनरी यह मालूम नहीं कर सकी कि इस नदी के रेत में पानी के साथ मिलकर बहने वाले सोने के कण कहां से निकलना प्रारंभ होते हैं. स्वर्ण रेखा नदी में बालू की तलहटी से सोने के कण निकालकर आज भी हजारों आदिवासी अपना जीविकोपार्जन कर रहे हैं. उनके परिवारों की कई पीढ़ियां इस नदी से सोने के कण निकालने का कार्य करती चली आ रही हैं. इसके बावजूद आज भी उनकी हालत दयनीय है और उनकी आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है.
नदी के अंदर चिकने और गोल पत्थरों पर बहते हुये बालू से सोने के कण निकालते आदिवासी परिवार चांडिल क्षेत्र में बड़ी संख्या में अक्सर दिखायी पड़ते हैं. आदिवासी स्वर्ण कणों को छानने के लिये मछलियां पकड़ने के काम आने वाली बैंत की लकड़ी की बनी टोकरी का इस्तेमाल करते हैं जिसकी पैंदी में कपड़ा लगा होता है. ये आदिवासी दिनभर यही काम करते हैं तब जाकर कुछ ग्राम सोना एकत्र कर पाते हैं.ये आदिवासी पेट भरने के लिये सोना तो खा नहीं सकते इसलिये रोटी की जुगाड़ के लिये ये लोग एकत्र किया हुआ सोना स्थानीय कस्बों में दलालों को बेच कर अपनी घर की जरुरत का सामान ले आते हैं. कई बार स्थानीय कस्बाई व्यापारी स्वयं इन आदिवासियों के पास पहुंच जाते हैं तथा औने- पौने दाम पर आदिवासियों द्वारा नदी से निकाला गया सोना खरीद लेते हैं. इस क्षेत्र के दलाल तथा बिचौलिये सोने का व्यापार करते हुये करोड़ों में खेल रहे हैं जबकि लाचार आदिवासी केवल दो जून की रोटी ही जुटा पाते हैं. इस नदी के आसपास के क्षेत्रों में पायी जाने वाली लाल मोंरंग मिट्टी में भी सोने के कण पाये जाते हैं. चट्टानों और पत्थरों के बीच पायी जाने वाली मोरंग मिट्टी को खोदकर आदिवासी अपने घर ले जाते हैं. उस मिट्टी को बड़े बर्तनों में घोलकर उसे बारीक कपड़ों में छाना जाता है फ़िर विशेष प्रक्रिया द्वारा मिट्टी से सोने के बारीक कण अलग कर लिये जाते हैं. पाथकुम, रामपुर, भुरहातु, उलीहातू, चांडिल और इचागढ़ क्षेत्रों के ग्रामीण मुख्य रुप से यही धंधा करते हैं.
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Tuesday, May 18, 2010
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